Saturday 20 October 2012

दराज


दराज में रखे दस्तावेज़ हों मानो,
जिस दराज की चाबी कहीं खो गयी हो |
खो गयी हो या मैने ही कहीं,
कहीं पास के तालाब में फेंक दी हो |

वो दस्तावेज़, अब तक तो उनका रंग पीला पड़ गया होगा ना,
शायद लिखाई भी थोड़ी फैल गयी होगी |

कितने ही लोगों के दस्तखत उन दस्तावेजों मेँ सासें लेते हैं,
लेकिन, गहरी नींद मेँ हैं सारे, जो दराज मेँ रोशनी भी तो नहीं जाती |

शब्दों से गुथा उसका हर कागज़ एक कहानी बयान करता है,
मैने भी गुथ दिया है उन पन्नों को, तारीख दर तारीख |

दराज की तलहटी पर एक पुराना अखबार भी बिछाया है,
आज मेँ जियो ऐसा कुछ लेख था उसमें,
बिछाते वखत दो बार पढ़ा था मैने उसको,
शायद आखों की जो नमी उसपर गिरी थी, अब सूख गयी होगी |

जब भी मैं उस दराज के नजदीक से गुज़रता हूँ,
आँख चुराते हुए, हाथ फेर लेता हूँ बस |

अब तक तो घुन लग चुकी होगी न उन कागजों को ?

अखबार बदलने के बहाने ही सही, सोचता हूँ खोलूँ उस दाराज को,
झिल्ली की फाइल पर जमी धूल की परत को, अपनी हथेली की किनार से साफ करूँ |

फिर, फिर डर जाता हूँ |



कहीं उनकी सीलन से खाँस न पड़ूँ,
कहीं वो कागज़ हमेशा के लिए बिखर न जायें |

यादें दराज मेँ रखे दस्तावेज़ हों मानो,
और दराज की चाबी; वो छुपा दी है मैंने |

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