Sunday, 24 March 2013

कल क्यूँ नहीं लिखा |


कभी लिखने बैठता हूँ तो सोचता हूँ,

कि कल क्यूँ नहीं लिखा था !


क्या कल ख्याल नहीं थे मन में ?

या श्याही खत्म हो गयी थी ?

या एकांत नहीं था, जिसे ढूँढता था मैं बड़ी तलब से,

पर अब जिससे उबकाई आती है !



Saturday, 23 March 2013

जब हम मिले थे |


हम मिले थे, तुमसे मिले थे,

तुम मिले थे, हमसे मिले थे |

 
जीवन की एक मोड़ मिले थे

हर कदम कदम जब साथ चले थे,

हाथों में लेकर हाथ चले थे |

 
जब हम मिले थे, तुमसे मिले थे,

तुम मिले थे, हमसे मिले थे |

 
खिली धूप, गुल बाग़ खिले थे,

चली हवा, फिर पंख लगे थे |

भीगा मौसम, भीगे हम भी,

ओढ़े बदरा, बरसात चले थे |

 
जब हम मिले थे, तुमसे मिले थे,
Photo Credits: Dhaval Thakkar

तुम मिले थे, हमसे मिले थे |

 
मन में मन भर यादों के मेले,

मन ही मन में कच्ची मिटटी सा बचपन खेले |

कोई एक नहीं, कोई दो नहीं,

फिर बातों के जो सिलसिले थे |


जब हम मिले थे, तुमसे मिले थे,

तुम मिले थे, हमसे मिले थे |


फरक मंजिलें, फरक रास्ते,

फिर मिले थे हम तुम किस वास्ते ?

शायद, मिलना ही थी हमारी मंजिल

मिलने ही थे हमारे रास्ते |


यादें याद आतीं, आहिस्ते-आहिस्ते |


जब हम मिले थे, तुमसे मिले थे,
 
तुम मिले थे, हमसे मिले थे |

Saturday, 20 October 2012

दराज


दराज में रखे दस्तावेज़ हों मानो,
जिस दराज की चाबी कहीं खो गयी हो |
खो गयी हो या मैने ही कहीं,
कहीं पास के तालाब में फेंक दी हो |

वो दस्तावेज़, अब तक तो उनका रंग पीला पड़ गया होगा ना,
शायद लिखाई भी थोड़ी फैल गयी होगी |

कितने ही लोगों के दस्तखत उन दस्तावेजों मेँ सासें लेते हैं,
लेकिन, गहरी नींद मेँ हैं सारे, जो दराज मेँ रोशनी भी तो नहीं जाती |

शब्दों से गुथा उसका हर कागज़ एक कहानी बयान करता है,
मैने भी गुथ दिया है उन पन्नों को, तारीख दर तारीख |

दराज की तलहटी पर एक पुराना अखबार भी बिछाया है,
आज मेँ जियो ऐसा कुछ लेख था उसमें,
बिछाते वखत दो बार पढ़ा था मैने उसको,
शायद आखों की जो नमी उसपर गिरी थी, अब सूख गयी होगी |

जब भी मैं उस दराज के नजदीक से गुज़रता हूँ,
आँख चुराते हुए, हाथ फेर लेता हूँ बस |

अब तक तो घुन लग चुकी होगी न उन कागजों को ?

अखबार बदलने के बहाने ही सही, सोचता हूँ खोलूँ उस दाराज को,
झिल्ली की फाइल पर जमी धूल की परत को, अपनी हथेली की किनार से साफ करूँ |

फिर, फिर डर जाता हूँ |



कहीं उनकी सीलन से खाँस न पड़ूँ,
कहीं वो कागज़ हमेशा के लिए बिखर न जायें |

यादें दराज मेँ रखे दस्तावेज़ हों मानो,
और दराज की चाबी; वो छुपा दी है मैंने |

Wednesday, 26 September 2012

हमने तो बस प्यार किया था |


मैने तो बस प्यार किया था |

स्कूल से लौटते वक़्त लहराते उसके बालों के रिबन से
दातों से कटरी उसकी लाल काली पेंसिल से
मुझपर होली का रंग डालती उसकी पिचकारी से
शाम को बगीचे में खेल में उसकी पुकारी से
रोशनदान के पीछे छिपी उसकी चितकबरी झलक से
हर मुस्कान पर आपस में टकराती उसकी पलक से
मैने तो बस प्यार किया था |

उसने तो बस प्यार किया था |

मेरी दो एक्सट्रा चक्कों वाली साइकल से
अमरूद के पेड़ के नीचे बनाए मेरे मिट्टी के महल से
मेरी बारिश के गड्ढों में की गयी हर छपाक से
हमेशा गुस्से से लाल रहती मेरी नाक से
हमेशा च्विंगम चबाते रहने के मेरे शगल से
उसकी एक मुस्कान के लिए की गयी मेरी हर हलचल से
उसने तो बस प्यार किया था |

हमने तो बस प्यार किया था |



जाति धर्म के मायने क्या बादल देते उसके रिबन, उसके पेंसिल की कतरन को?
पिचकारी के रंग को, पुकारने के ढंग को?
उस झलक को, उस पलक को, जिससे मैने प्यार किया?

कैसे समझें जाति धर्म के कारण बने इन खून के थक्कों को?
जब प्यार समझता हो सिर्फ वो महल, वो लाल नाक, बारिश की छपाक और साइकल के चक्कों को |

उसने तो शगल से प्यार किया ...
अफसोस, ऐसे प्यार को खत्म करना, अब जाति भेद का शगल है !

अगर दिल में कुछ हलचल हुई हो तो इस छपाक की बौछार में जाति भेद को मिट जाने दें |
और खुशियों के महल में सच्चे प्यार को जीत जाने दें |